ग़ज़ल
मुद्दतों ख़ुद को चाक पर देखा
तब कहीं जाके कुछ असर देखा
सुब्ह की चाय और तुम्हारा किस
मैंने ये ख़्वाब उम्रभर देखा
मुझसे कहती है आओ मर जाएँ
उसने फिल्मों को इस क़दर देखा
वो भी मिट्टी का एक ढेला है
चाँद को मैंने तोड़कर देखा
क्यों न दुनिया से सुल्ह कर लूँ अब
एक दिन यूँ ही सोचकर देखा
पार्क में खेलते हुए बच्चे
जैसे फूलों को शाख़पर देखा
आग,पानी,धुआं,शरारे,राख
जाने क्या ख़्वाब रातभर देखा
आज फिर कैफ़ियत ग़ज़ब की है
आज फिर उसको आँखभर देखा
इश्क़ की बेंच पर गुज़ारी रात
जब कभी ख़ौफ़ का असर देखा
किस जगह कैमरा उठाता मैं
सारा आलम लहू से तर देखा
छत पे जाले न खिड़कियों पर धूल
कल नए ज़ाविये से घर देखा
अलहदा अंदाज़ में कही गयी उम्दा ग़ज़ल है यह। इमरान भाई की ताज़ा कहन का मैं कायल हूँ।
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